मजबूरी है मीडिया का चवन्नी होना

पत्रकारों की चवन्नी के दोनों तरफ सत्ता लिखा होना लाज़मी है। सत्ता किसी की भी हो, सत्ता के साथ न रहे तो चैनल, अखबार, वेबसाइट कैसे चलें ! जो अखबार पांच रुपए का बिकता है उसके सिर्फ कागज की ही कीमत आठ रुपए होती है। जिन झउवा भर टीवी चैनलों को आप तीन-चार सौ रुपए महीना खर्च करके देखते हैं उनका खर्च कहां से चलेगा। सरकारी विज्ञापन तो छोड़िए कारपोरेट जगत भी उस मीडिया ग्रुप को विज्ञापन नहीं देना चाहता जो सरकार से सवाल पूछते है़ं।
अब बताइए पत्रकार क्या करें, वो पत्रकारिता के सिद्धांतों को अपनी थाली में रखकर क्या अपना पेट भर सकता है!
कांग्रेस की इमरजेंसी का इतिहास सब को याद है। यूपी में माया मुलायम के दौर में मीडिया की औक़ात क्या बहुत अच्छी थी? दिल्ली में केजरीवाल सरकार कितना सरकारी विज्ञापन बांटती है शायद ही किसी को इसका अंदाज़ा हो। वर्तमान में देशभर में मोदीमय मीडिया से तो सभी वाकिफ हैं। वर्तमान से लेकर अतीत तक मीडिया वो चवन्नी रही है जिसके दोनों तरफ सत्ता लिखा होता है।
मौसम वैज्ञानिक और जिसकी सत्ता उसका साथ के खिताबों के लिए मशहूर स्वर्गीय चौधरी अजीत सिंह के साहबजादे और राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी भले ही खुद को चवन्नी न मानें और अपनी पार्टी की परंपरा को भले ही भविष्य में बदल दें पर पेशेवर पत्रकारों/मीडिया की मजबूरियां उनको नहीं बदल सकतीं। मीडिया कल भी चवन्नी थी,आज भी है और कल भी रहेगी।

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