ऐसे यौन हिंसकों की सजा क्या होनी चाहिए?
ग्वालियर।भारत का यौन हिंसा के मामलों में सबसे खतरनाक देशों में शुमार है। खेल क्षेत्र पर नजर डालें तो यह नीचता की हद तक पहुंच चुका है। वजह खेल संघों में इंसान के रूप में भेड़िये अपनी इस कदर पकड़ और पैठ बना चुके हैं कि इनके खिलाफ शिकायत करना भी किसी बेटी के लिए आसान नहीं है। कई दुस्साहिसक खिलाड़ी बेटियां खेलों में घुसे भेड़ियों की शिकायत करने के बाद गुमनान अंधेरे में खो चुकी हैं। दरअसल, इसी का फायदा उठा रहे हैं आनंदेश्वर पांडेय जैसे भेड़िए।
कुछ दिन पहले भारतीय ओलम्पिक महासंघ के कोषाध्यक्ष आनंदेश्वर पांडेय के कुछ आपत्तिजनक फोटोज वायरल होने के बाद एकबारगी यकीन ही नहीं हुआ कि खेलों के इज्जतदार ही खेलों की इज्जत लूट सकते हैं। खेलपथ ने इस मामले की तह तक जाने की कोशिश की तो पता चला कि खेलों में नीचता की पराकाष्ठा है, यहां नीचों का जमघट है, जिनके खिलाफ मुंह खोलना खतरे से खाली नहीं। खैर, केकेएफआई (खो-खो फेडरेशन आफ इंडिया) ने साहस दिखाया और आनंदेश्वर पांडेय की असलियत जताते कुछ फोटो पोस्ट कर दिए। कुछ मिनट के बाद यह फोटोज टाइम लाइन से हटा दिए गए, इसकी वजह, जल में रहकर मगर से दुश्मनी मान सकते हैं। आनंदेश्वर पांडेय जैसे लोगों के हाथ बहुत लम्बे हैं, ये जिसके पीछे पड़ जाएं उसका खेल तमाम कर देते हैं।
हम आपको बता दें कि इन जाहिलों और यौन हिंसकों की कारगुजारियां कानून से नहीं रोकी जा सकतीं। वर्ष 2015-16 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS 4) में इस बात का उल्लेख किया गया है कि भारत में 15 से 49 आयु वर्ग की 30 फीसदी महिलाओं को 15 साल की आयु से ही शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है। कुल मिलाकर NFHS 4 में कहा गया है कि उसी आयु वर्ग की 6 फीसदी महिलाओं को उनके जीवनकाल में कम से कम एक बार यौन हिंसा का जरूर सामना करना पड़ा है। आमतौर पर बदनामी के डर से काफी बड़ी संख्या में ऐसे मामले दर्ज ही नहीं हो पाते, खासतौर पर तब जब पीड़िता को अपने ही परिचितों के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी हो। आनंदेश्वर पांडेय जैसे भेड़िये इसी बात का फायदा उठा रहे हैं।
देखा जाए तो हमारे देश में इस तरह की बुराई को मिटाने के लिए महिला संरक्षण अधिनियम, 2005, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 और भारतीय दंड संहिता की धारा 354A, 354B, 354C और 354D बने हुए हैं लेकिन यह बिना दांत के हाथी सिद्ध हो रहे हैं। सच कहें तो ये कानून तभी प्रभावी हो सकते हैं, जब महिलाएं आगे आएं और दोषियों के खिलाफ मामले दर्ज कराएं, जो कभी कभार ही होता है। इस तरह, आमतौर पर बदनामी के डर से काफी बड़ी संख्या में ऐसे मामले दर्ज ही नहीं हो पाते। सच कहें तो आपराधिक गतिविधियों की रोकथाम के लिए बनाए गए ये कानूनी प्रावधान आमतौर पर अपराध होने के बाद पीड़िता को सदमे से उबारने के उपायों के तौर पर ही इस्तेमाल होते हैं। लिखने को तो बहुत कुछ है लेकिन यौन हिंसा की कारगुजारियां कलम से नहीं रोकी जा सकतीं तब तो और भी नहीं जब कोई साथ देने को तैयार न हो। ऊपर वाले तू ही दे ऐसे भेड़ियों को दंड ताकि कोई बेटी असमय खेलों से नाता न तोड़े।