संविधान रचना में सरदार पटेल का जो योगदान था, उसका सामान्यतः सम्पूर्ण रूप में मूल्यांकन नहीं हुआ है। जब कभी कोई गंभीर विवाद खड़ा होता तब नेहरूजी अंतिम रचनात्मक भाग अदा नहीं करते थे, परन्तु सरदार की आवाज की ही आम तौर पर जीत होती थी। यह बात अनेक बार स्पष्ट हुई थी, खास तौर पर भाषा सम्बन्धी विवाद में, जब पुरुषोत्तमदास ने हिन्दी के ध्येय का जोरदार समर्थन किया था तथा भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति की नियुक्ति विषयक चर्चा में।
एक मामले में सरदार को अपनी बीमारी में बम्बई से एक पत्र लिख कर हस्तक्षेप करना पड़ा था और दूसरे मामले में पंडित जवाहरलाल नेहरू को तत्कालीन गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य को प्रथम राष्ट्रपति बनाने के अपने प्रस्ताव के खिलाफ कांग्रेस पार्टी में ऐसे भारी विरोध का सामना करना पड़ा कि उन्हें शब्दशः हार मानकर इस प्रश्न को स्थगित रखना पड़ा। परन्तु सदस्यों का मिजाज काफी भड़क गया था
और सरदार को अपने पांच मिनट के हृदयस्पर्शी भाषण द्वारा लोगों के मिजाज को शांत करना पड़ा था। उन्होंने ऐसे समय के लिए इस प्रश्न को स्थगित कर दिया जब उसे भारतीय जनता द्वारा प्रदान किये जाने वाले इस उच्चतम पद की प्रतिष्ठा के साथ हल किया जा सके।
इस भाषण के बाद संविधान सभा के अनेक प्रमुख सदस्य सरदार के पास आये और बोले : “आपने न केवल कांग्रेस पार्टी को ऐसी कठिन स्थिति से उबार लिया, जिसमें वह नेहरूजी की राय को मानने के लिए तैयार नहीं थी, बल्कि उस पद की प्रतिष्ठा की भी रक्षा कर ली जिसके विषय में प्रस्ताव रखा गया था।”
इस रचनात्मक योगदान में सरदार की एक विशिष्टता यह थी कि उन्हें शायद ही कभी अपने विचारों को दूसरों पर लादना पड़ा था। आम तौर पर वे अपने साथियों को खुद के विचार स्वीकार करने के लिए समझा सके थे अथवा अपनी पार्टी को उनका समर्थन करने के लिए राजी कर सके थे ।
एक बार वे अधिकारपूर्वक अपनी बात कहते कि पार्टी के सब सदस्य आम तौर पर उनका नेतृत्व स्वीकार कर लेते थे। सरदार की सफ लता की कुंजी उनके उस गहरे प्रभाव में थी, जो उनकी विशिष्ट प्रामाणिकता, उनका उच्च नैतिक बल, उनके तर्कों की अकाटयता, उनकी अपील की थी। सीधी सरल भाषा तथा उनकी उदात्त देशभक्ति उनके श्रोताओं पर असर डालती थी। अपने इन्हीं उदात्त गुणों के कारण सरदार अपने श्रोताओं के हृदयो तक निश्चित रूप में पहुंच सकते थे।
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