हिन्दुस्तान अखबार के लखनऊ संस्करण के छायाकार सुधांशु की जांबाज़ी ने साबित कर दिया कि इस शहर के छायाकारों में दिवंगत छायाकार संजीव प्रेमी जैसा जुनून अभी जिन्दा हैं।
लखनऊ के जांबाज छायाकार संजीव प्रेमी को अपनी जान से ज्यादा फोटोग्राफी के पेशे से प्रेम था, टाप एंगिल फोटो लेने के जुनून में बिजली के हाई-टेंशन तार से टकराकर प्रेमी ने अपनी जान गंवा दी थी। ढाई दशक बाद लखनऊ के युवा छायाकार सुधांशु में ऐसा ही जज्बा दिखा, वो खूंखार तेंदुए की जीवंत तस्वीर लेने के जुनून में तेंदुए से टकरा गए।
शुक्र कीजिए की तेंदुए इस जांबाज फोटो जर्नलिस्ट को गिराकर तेजी से भाग गया। मालूम हो कि लखनऊ के रिहायशी इलाकों में एक हट्टा-कट्टा तेंदुए घूम रहा है। कल कल्याणपुर में वन विभाग की टीम जाल बिछाकर उसे पकड़ने की कोशिश कर रही थी, इस बीच सुधांशु इस दृश्य की जीवंत तस्वीरें लेने के लिए तेंदुए के सामने आ गए और तेंदुए ने उनपर हमला कर दिया।
इस घटना ने एक बार फिर पत्रकारिता में छायाकारों की एहमियत की एक बड़ी दलील पेश की। साबित किया कि कैमरे का महत्व कलम से कम नहीं। हाथी-घोड़ों पर सवार योद्धाओं का ओहदा भले ही बड़ा हो पर पैदल सिपाहियों की जांबाज़ी के आगे अक्सर बड़े छोटे साबित होते हैं और छोटे अपना बडा जज्बा साबित करते हैं।
दुश्मन से डरें बिना सबसे आगे बढ़ने वाले पैदल सिपाहियों की तरह ही मीडिया में फोटाग्राफर/कैमरामैन का कैमरा अक्सर कलमकार पत्रकार के कलम से भी बड़ी भूमिका निभाता है। बिना तस्वीर या वीजुअल के कोई भी खबर या स्टोरी अधूरी होती है। फोटो जर्नलिस्ट को जर्नलिस्ट से कमतर समझने वाले नादान लोगों को समझना होगा कि जर्नलिस्ट कोई खबर हवा (फर्जी/मनगढ़ंत) में लिख सकता है लेकिन फोटो जर्नलिस्ट कभी सूत्रों के हवाले से तस्वीर/विजुअल पेश नहीं सकता।
इसे छिपी खबरों की दलीलों की तस्वीरों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है और खुले हुए मंजरों को कैमरे में क़ैद करने के लिए जोखिम उठाना पड़ता है। मीडिया फोटाग्राफर कभी किसी नेता तो कभी किसी दबंग/माफिया/अपराधी की दबंगई सहता है तो कभी इन्हें दंगों में लाठियां, गोलियां और पत्थर खाने पड़ते हैं।
कभी ये पुलिस की ही लाठियों का शिकार हो जाते हैं। करीब ढाई दशक पहले लखनऊ के विख्यात छायाकार संजीव प्रेमी एक कवरेज के दौरान टाप एंगिल से फोटो लेने के जूनून में किस तरह हाई-टेंशन बिजली के करंट से ज़िन्दगी गंवा बैठे थे,इस घटना को भुलाया नहीं जाता।
आज लगा कि भले ही दिवंगत छायाकार संजीव प्रेमी नहीं हैं पर लखनऊ की पत्रकारिता में सुधांशु जैसे छायाकारों में प्रेमीं जैसा जज़्बा ज़िन्दा है।
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